गौरैया

शहर में आज-कल कम ही देखने को मिलती है वो,
पर जाने मेरे कमरे में कहाँ से आ गयी,
आते ही बुल्शेल्फ़ के सबसे ऊपरवाले हिस्से में चढ़ गयी,
कुछ सोचते-सोचते उसने कोशिश की वहां सुकून से बैठने की,
बहुत देर तक जद्दो-जेहद में लगी रही,
लेकिन वहां की किताबें उसे जगह नहीं दे रही थीं,
पंख फैलाने को,
कुछ देर कोशिश करने के बाद उड़ गयी,
और जाकर बैठ गयी बाहर कपड़े सुखाने की तार पर,
उसकी हिलती-डुलती परछाईं मेरी डायरी में पड़ रही थी,
कुछ सोचकर दुबारा अन्दर आयी और फिर चढ़ गयी बुकशेल्फ पर,
इस बार बुकशेल्फ का नीचे का हिस्सा भी छाना उसने,
पर मेरी माँ के कमरे में आती ही उड़ गयी फुर्र से से,
माँ कह रहीं थीं,
अगर ये कमरा हमेशा खुला रहे तो वो यहाँ घोंसला ज़रूर बना लेगी.

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