टिफ़िन


रात के,
लगभग सवा एक बजे,
नींद टूटी,
और
टेबल पर रखे,
टिफ़िन पर,
जा गिर पड़ी,
दफ्तर से लौटकर,
मैंने खुदको,
रख दिया था,
बिस्तर पर,
और टिफ़िन को,
टेबल पर,
बेशक!
वो टिफ़िन,
भरा हुआ था,
भूख भी,
माथे पर,
भिनभिना रही थी,
लेकिन,
पेट तक,
पहुँच न सकी,
इस दौरान,
आँख भी लग गयी,
पौ फटते ही,
भूख से तिलमिलाकर,
मैं जाग उठा,
और टिफ़िन पर,
टूट पड़ा,
पर! ये क्या?
इसके चारों डिब्बे,
पत्त्थर के टुकड़ों से,
भरे पड़े हैं,
लगता है,
होस्टल के,
किसी लड़के ने,
अपनी भूख,
इस पर साफ़ कर दी,
चलो, कोई बात नहीं..
मेरे बारे में कुछ तो सोचा,
पत्थर ही सही,
मेरे खाने के लिये,
कुछ तो छोड़ा इसमें...

Labels: