आज़ादी सरहदों से


सियासतदारों ने लोगों के गुस्से को हथियार बना रक्खा है,
पैंसठ साल होने को हैं और दिल में घाव जगा रक्खा है,
उस वक़्त बाँट दिया था मुल्क को सरहदों से,
और आज गलतफहमियों का बाज़ार मचा रक्खा है,

इंसान तो अब भी इंसानियत की हिमायत करते हैं,
शफ़क़त* मुखोटों में हैवानों ने कोहराम मचा रक्खा है,
और अगर पत्थर तुम भी फेंकोगे किसी के घर में,
तो उसने भी जवाब देने का इंतजाम कर रक्खा है,

किसी ने तो घोला है अफवाहों को बयार** में,
ज़र्रे-ज़र्रे के माहौल को ज़हरीला बना रक्खा है,
और घर के मसले कम हैं सुलझाने के लिए,
जो बाहर का इक मसला और उलझा रक्खा है...

यूँ तो ज़मीन पे खींच रखीं हैं लकीरें बेइन्तहां,
उससे भी कहीं ज्यादा दिलों को बाँट रक्खा है,
हमारी-तुम्हारी आमद को मिले न मिले आज़ादी सरहदों से,
लेकिन ख्वाबों में बेहिचक आने-जाने का दस्तूर बना रक्खा है...

और क्यूँ मुश्किल हैं जीना मोहब्बत के सहारे,
दुश्मनी और जंग को रिवाज़ बना रक्खा है,
हम और वो तो अब भी चाहते हैं एक-दूजे को,
पर कमबख्त "उन्होंनें"# ही फासला बना रक्खा है,





* इंसानी 
** हवा 
# वो लोग जो ऊँचे ओहदों पर हैं और आम आदमी की पहुँच से बाहर हैं,
जिनके तय किये  फैसले अखबारों में छपते हैं.






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