यादों का डोज़


मैं चार दिन उसके घर में ही ठहरा था,
इस दौरान उससे बात कुछ भी नहीं हुई,
और होती भी कैसे?
जिसके घर में आधा सैंकड़ा मेहमान हों,
वहां बात हो भी तो क्या?
यूँ कभी आते-जाते टकरा जाएँ तो,
देख लेते थे एक-दूसरे को उस पल में इतना,
कि पूरा पड़ जाता था बाकी दिन के लिए,
फिर वो वक़्त आया,
जब उसे सज-संवरके बैठना था मंडप में,
बस, उससे कुछ वक़्त पहले,
वो आयी थी मेरे कमरे में,
बात कुछ भी नहीं की,
मुझे देखा और दो आंसू बह निकले उसके,
जो साथ में थोड़ा काजल बहाकर ले गए थे,
लाली से लदे होंठों तक,
आख़िरी बार इतना ही देखा था उसे,
तब से रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके पुराता* हूँ उसकी यादों को...


*(कुछ कमी होने पर भी, इस तरह से उपयोग करना कि उतने में ही पर्याप्त हो जाए)

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