हाथों की लकीरें

रात भर सुलगता रहा
जलता भी रहा
न चिंगारी थी
न आग
न धुआँ
वहां सुबह ठण्डी राख़ का इक ढेर मिला
जिसे हवा ने ज़्यादा देर जीने नहीं दिया
वो भी उसे तितर-बितर करते हुए आगे बढ़ गयी
मुझे याद है वो स्याह रात
बेहद सर्द थी
जिसकी तपिश से
हथेलियाँ जल गयीं थीं
उनमें कुछ लकीरनुमां निशान पड़ गए थे
कुछ लोग कहते हैं कि इन लकीरों से
इन्सान का आने वाला कल होकर गुज़रता है
पर मैं तो अब भी इनमें बीता हुआ कल ही ढूंढ रहा हूँ
इस उम्मीद में कि शायद तुम भी वहीँ-कहीं मिलोगे
लेकिन अब तक कुछ हाथ नहीं आया
बस हाथ में हैं तो वो ही आड़ी-टेढ़ी लकीरें...


Labels: , , , , ,