बूमरैंग

(दूसरी किश्त)

सितम्बर की दोपहर थी, हल्की सी धूप कॉफ़ी हाउस के काँच वाले दरवाज़े से अन्दर जा रही है। वहीं एकदम सामने की टेबल पर वो उसका इंतज़ार कर रही थी। दोनों को एक-दूसरे को पहचानने में कोई मुश्किल नहीं हुई। उस लड़की ने उसे मुस्कुराकर देखा और उसने भी मुस्कराहट से उसका जवाब दिया। वो उसी टेबल पर उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। कुछ ही पल बीतते ही वो लड़की थोड़ा असहज हो गयी। बड़ी हड़बड़ी में उसने खाने के लिए कटलेट और साथ में कॉफ़ी का ऑर्डर दिया। मुस्कराहट से शुरू हुआ माहौल भारत-पाक शान्ति वार्ता जैसा लगने लगा। थोड़ी देर में ऑर्डर टेबल पर लग गया। हमेशा छुरी-काँटे का इस्तेमाल करने वाली लड़की उस दिन हाथ से कटलेट खा रही थी, मिलने का वादा था चाय पर और कॉफ़ी पी रही थी। उसके बाद उसने कोल्ड ड्रिंक भी ऑर्डर की, उसकी तली का नारंगी निशान भी सफ़ेद टेबल पर पड़ गया था। जिसे बाद में शायद वेटर ने मिटा दिया होगा लेकिन वहाँ से जाने के बाद भी वो दोनों उस मुलाक़ात को मरते दम तक शायद नहीं भूल पायेंगे। हालाँकि उस दिन दोनों ने ज़्यादा बात नहीं की, वो लड़का उसे एकटक देख रहा था। वो लड़की थोड़ा पॉवर वाला चश्मा लगाए बैठी थी।  कानों में तीन-चार एअरिंग्स पहन रखे थे। चेक शर्ट और ब्लू जीन्स उस लड़की पर जच रहा था। उसने लड़के को ज़्यादा देर नहीं देखा था, कभी-कभार वो उसे चोरी से ज़रूर देख लेती थी। उसने उसे इतना देख लिया था कि वो उसे भीड़ में भी आसानी से पहचान सकती थी। उन दोनों की केमिस्ट्री का तो पता नहीं लेकिन फ़िज़िक्स ये कहती थी कि दोनों समान क्षमता और प्रकृति वाले चुम्बक थे। जिनकी तरंगें एक-दूसरे को असहज कर रहीं थीं। इसे दोनों महसूस भी कर रहे थे। लेकिन आम भाषा में कहा जाए कि उस समय वो दोनों जो महसूस कर रहे थे, वो कुछ ऐसा था जैसे भारी सर्दियों में जलते अलाव से निकलती गर्मी के चुभने पर भी उसे छोड़ने का मन नहीं होता। जहाँ सुकून और बैचैनी एक साथ चलते रहते हैं। राहत और हरारत का ये दौर थोड़ी वक़्त के लिए ही रहा। क्योंकि हर मुलाक़ात को कहीं न कहीं ख़त्म होना ही होता है। लड़की को बिल देने की बहुत जल्दी थी, उसने बिल दिया और वो दोनों वहाँ से निकल गए। हाँ जाते हुए उसे उस लड़की ने बताया कि उसे शाहिद और सोनम की "मौसम" फिल्म देखने जाना है। लड़के ने उसे अपनी बाइक पर बैठाया और चल पड़ा मल्टीप्लेक्स की तरफ़।

क्रमशः

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