(तीसरी किश्त)
उसने उस लड़की को मल्टीप्लेक्स के बाहर ड्राप कर दिया। न तो उस लड़की ने उसे फ़िल्म देखने के लिए पूछा और न ही उसने देखने की इच्छा जताई। वो वापिस घर आ गया। शाम को घर पर उसकी मम्मी किसी लड़की की बात कर रहीं थी जो उसी मल्टीप्लेक्स में उनके आगे वाली कतार में बैठी थी। जिसके कान में तीन-चार एअरिंग्स थे और जो अकेले ही आयी थी और अकेले ही चली गयी। उनके मुताबिक़ वो हू-ब-हू उतनी ही ख़ूबसूरत थी जितनी कि वो लड़की, जिससे वो आज मिला था। थोड़ी देर में ये भी पक्का हो गया कि मम्मी भी उसी लड़की की बात कर रही थीं, जिससे वो आज मिला था। वो मन ही मन अपनी खैर मना रहा था कि अच्छा हुआ वो उसके साथ फ़िल्म देखने नहीं गया। अगले दिन वो घर पर ही था, मुम्बई से लौटे हुए उसको 5-6 महीने हो चुके थे। इस शहर में जहाँ कल तक उसका मन नहीं लगता था वहाँ आज उसका दिल लग गया था। शाम होते-होते उसके पास फ़ोन आया कि क्या वो घड़ी की शॉप तक चल सकता है। वो फ़टाफ़ट तैयार हुआ और पहुँच गया उसे लेने लेकिन तब तक वो रिक्शा लेकर निकल चुकी थी। फिर भी अपनी बाइक दौड़ाते हुए उसने उसे रास्ते में ही रिक्शा से उतारकर बाइक पर बैठा लिया। वो बैठ तो गयी थी लेकिन सीट के एकदम आख़िरी कोने में। उसके अगले दिन वो फिर मिले जब उसे अपनी अँगूठी ठीक करवाने सुनार के पास जाना था। तब भी वो उसके बुलाने पर आ गया। वहाँ से निकलते हुए उसने पूछा - अब कहाँ जाना है? वो बोली - रेलवे स्टेशन।उसने बाइक उस तरफ़ मोड़ दी।
क्रमशः
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